Tuesday, October 21, 2008

बहुत दूर चला आया हूँ मैं


मैं चला था कभी भीड़ में दब के,
अब उसी भीड़ का एक साया हूँ मैं|

इन आंखों में कुछ ख्वाब सजाये,
बहुत दूर चला आया हूँ मैं|

दिखता है जो कभी, कभी गुम जाता है वो,
उस बेदर्द "खुदा" का तड़पाया हूँ मैं|

डरता हूँ अब कुछ भी करते,
बहुत दूर चला आया हूँ मैं|

क्यूँ हुआ है ये सब, के हैरान हूँ मैं,
क्यूँ देख कर के ये ख्वाब पछताया हूँ मैं|

अपनी ही चिता पे चलते-चलते,
बहुत दूर चला आया हूँ मैं|

पर होगा मुनासिब, अब वापिस लौट जाना,
ख्वाबों से रूठ कर के भी क्या, कभी जी पाया हूँ मैं|

कुछ तो है जो चलता हूँ मैं हरदम,
यूँ ही नहीं "इंसान" कहलाया हूँ मैं|


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