Saturday, December 3, 2011

देवभूमि हिमाचल - The Land of Miracles, Demi-Gods, Beliefs, and Superstitions

कमरुनाग झील [Read Trek to Kamrunag Temple]हिमाचल में २७०० मीटर की ऊंचाई पे स्थित है और यहाँ देव कमरू का एक मंदिर है, जिसे महाभारत की कथा में रत्न्यक्ष के नाम से जाना गया है | मंदिर में आने वाले श्रद्धालु सिर्फ झील में ही चढ़ावा चढाते हैं, पैसा, रूपया, चांदी, और यहाँ तक की सोना भी | कुछ साल पहले तक वहां झील में गहने फेंके हुए दिख जाते थे, सिक्के आज भी फेंके जाते हैं | वहां एक बोर्ड लगा हुआ है जो कहता है की चढ़ावा सिर्फ झील में चढ़ाएं, ऐसा देवता का कहना है | देव कमरुनाग पूरे मंडी जिले का देवता है, और ये माना जाता है की साल की पहली बारिश देवता के आदेश/आशीर्वाद से होती है | कहानी कहती है कि एक बार कुछ डाकू आये और झील का सोना लूट के निकल लिया, उन सबकी आँखें फूट गयी, सब के सब अंधे हो गए | एक बार जहाज गया था उस पहाड़ी के ऊपर से, वो भी गिर गया और उस कहानी को देवता का श्राप मानते हुए आज तक उस पहाड़ी के ऊपर से कोई जहाज नहीं गुजरा |

यहाँ से कुछ दूर ट्रेक करने पर हम पहुँचते हैं शिकारी देवी [Read Trek to Shikari Devi]के मंदिर में जो कि ३३०० मीटर कि ऊंचाई पे स्थित है, और यहाँ बर्फ गिरती है सर्दियों में भयंकर, पांच पांच फीट| इस मंदिर कि ख़ास बात ये है कि इस मंदिर कि छत नहीं है , लेकिन सिर्फ छत न होना इसकी ख़ास बात नहीं है, ख़ास बात है सर्दियों में बर्फ गिरने पर भी अन्दर रखी मूर्ती पे बर्फ नहीं गिरती, मैं कभी शिकारी देवी गया नहीं हूँ पर मैंने अत्यधिक पढ़े-लिखे लोगों के मुहं से ये बात सुन रखी है |

बिना छत का शिकारी देवी मंदिर 

थोडा नीचे आने पे जन्जेहली (Janjehli Valley) में  एक भीम शिला है जो नाम कि तरह भीमकाय है लेकिन हाथ कि सबसे छोटी ऊँगली से हिलाने पे हिल जाती है | हिमाचल का सबसे प्रसिद्द पास, रोहतांग पास भी देवता कि तरह पूजा जाता है | कहते हैं रोहतांग पास का मतलब है रूहों का घर , यहाँ सबसे ज्यादा मौतें होती हैं सैलानियों कि, क्यूंकि यहाँ मौसम किसी भी पल बदल जाता है | हर साल रोहतांग (Rohtang Pass) खुलने से पहले देव रोहतांग कि पूजा होती है ताकि कोई त्रासदी न हो और इसी पूजा से बोर्डर रोड ओर्गनाइज़ेशन के जवानों को भरोसा आता है माइनस २० डिग्री में काम करने का|

भीम शिला, जन्जेहली वैल्ली, Source: Himrahi

बात करते हैं कुल्लू जिला कि, कुल्लू हिमाचल का सबसे रहस्यमयी जिला है| यहाँ ऐसी ऐसी कहानियां, मंदिर, इमारतें मौजूद हैं कि बस आप कहानियां ही सुनते रह जाओगे| यहाँ कुल्लू का दुशहरा होता है जिसे अंतर्राष्ट्रीय दर्ज़ा मिला हुआ है, मेले कि ख़ास बात ये है कि जब तक देव रघुनाथ ना आ जाए, ये मेला नहीं शुरू होता| वैसा ही मंडी की शिवरात्रि में हैं की जब तक देव कमरुनाग नहीं आएगा, मेला नहीं शुरू होगा|

कुल्लू जिला में जात पात का भी बहुत लफड़ा है| किसी किसी गाँव में अनुसूचित जाति वाले लोगों को गाँव में नहीं घुसने दिया जाता, कहीं कहीं गाँव में तो जा सकते हैं पर घरों में नहीं जा सकते| मंडी जिले के कुछ गाँव जो कुल्लू जिले से लगते हैं, वहां भी जात पात का प्रचलन बहुत ज्यादा है| कोई चमार जाति का इन्सान हो, पहले तो ये समझा जाए की चमार कौन है? चमार वो है जो चमड़े का काम करे (चम/चर्म = skin), अब पुराने ज़माने में जब चमड़े से काम करते थे तो हाथ गंदे होंगे क्यूंकि टेक्नोलोजी नहीं थी, मशीन नहीं थी, और ऊपर से गरीबी| तो अनुसूचित आदमी मंदिर में नहीं घुसेगा | कुल्लू के बहुत से गाँवों में जात पूछी जाती है बात शुरू करने से पहले और वहां बहुत से गाँव ऐसे हैं जो एक्स्क्लुसिवली राजपूतों या ब्राह्मणों के हैं और वहां अनुसूचित जाती के लोग जा ही नहीं सकते | लेकिन अब जब रहन सहन काफी हद तक बदल गया है तो ये रीति रिवाज़ भी बदल जाने चाहिए|

कुल्लू दशहरे में देवता कि पालकी, कहते हैं ये पालकियां अपने आप घूमती हैं, इधर से उधर

वैसे ही महिलाओं  के मंदिर में प्रवेश वर्जित होते हैं माहवारी (Periods) के दौरान, लेकिन आज जब ये टेक्नोलोजी भी बदल चुकी है, सफाई रखने के कई बेहतर और आसान तरीके मौजूद हैं, तो ये रिवाज भी अब ज्यादा मायने नहीं रखता है| पुराने रीति रिवाज़ तब तक वैलिड थे जब तक आसान तरीका नहीं था| एक तरीका नीचे देखें|


कुल्लू के लघ घाटी में एक गाँव है सेओल, वहां एक जंगल है जिसके पेड़ कम से कम सौ साल पुराने हैं,  ये सारा  जंगल देवता का है और एक पत्ता भी वहां तोड़ना मना है उस जंगल से| पकड़े जाने पे मंदिर में पेशी लगती है और जुर्माना अलग| अब सोचा जाए तो सौ साल पुराने जंगल को बचाने के लिए कोई कहानी तो बनानी ही पड़ेगी, तो देवता का नाम दे दो और फिर कोई कुछ नहीं करेगा| बिना चालान होने के डर के लोग हेलमेट नहीं पहनते तो जंगल को तो बिना डर के लोग तहस नहस कर देंगे, तो इसलिए देवता का नाम जरुरी है इतने पुराने जंगल को बचाने के लिए| कई गाँवों में देवता के नाम पे हेरिटेज कंजर्व भी हुई है, इसमें कोई दो राय नहीं |

यहाँ से चले जाएँ किन्नौर कि और तो वहां भी यही कहानी है, देवी देवता की | एक जगह है तरंडा ढांक (Taranda Temple) , ढांक पहाड़ी में खाई को कहते हैं| शिमला से किन्नौर में घुसते ही तरंडा ढांक आती है, एकदम सौ-दो सौ फीट खड़ी पहाड़ी और नीचे उफनती हुई सतलुज नदी, गिरने पर बचने का कोई स्कोप नहीं| तो तरंडा मंदिर के पास आने जाने वाले हर एक गाडी रूकती है, जो नहीं रुकता वो सतलुज में समा जाता है, ऐसा लोगों का मानना है| जिन लोगों को इस बारे नहीं पता होता वो लोग दैवीय प्रकोप से बच जाते हैं, पर जो जान बूझ के न रुके, वो नदी में समा जाता है, ऐसा माना जाता है, किन्नौर में इस मंदिर की बड़ी मान्यता है | बात सही भी है, किन्नौर कि सडकें हैं तो चौड़ी पर अगर गिर गए तो मौत निश्चित है, इसलिए तरंडा ढांक का डर/भरोसा आदमी कि जान बचाने में काफी कारगर साबित होता है|

ऐसा ही स्पीति में कुंजुम पास में होता है, एक मंदिर है कुंजुम टॉप (Kunjum Pass) पे, वहां आने जाने वाली हर गाडी रूकती है, यहाँ तक की अँगरेज़ भी, नहीं तो कुंजुम की घुमावदार सडकें लील लेती हैं इंसान को| ऐसा ही मंडी से मनाली जाते हुए हणोगी माता के मंदिर में होता है , जो रुका नहीं वो रुकता  भी नहीं सीधा ऊपर पहुँच जाता है, ऐसा माना जाता है |

 कुंजुम टॉप, पीछे मंदिर दिख रहा जिसके इर्द गिर्द चक्कर लगाके लोग आगे बढ़ते हैं |

तरंडा ढांक, ऐसी सड़कों पे भरोसा (खुद पे,किसी और पे) बड़ा जरुरी है, कई सौ मीटर नीचे सतलुज नदी बहती है 

यहाँ सतलुज और स्पीती नदियों को भी देवी कि तरह पूजा जाता है | यहाँ पहाड़ों की पूजा होती है | यहाँ पत्थर, मिट्टी, जंगल सब की पूजा होती है| जितने भी ऊँचे ऊँचे पहाड़ है, पास है, टूरिस्ट प्लेसेस हैं सब जगह आपको मंदिर जरुर मिलेगा| और कई जगह तो सिर्फ मंदिर होने कि वजह से टूरिस्ट प्लेस बन गया है |

मेरे ख्याल से यहाँ पूजा करते हैं प्रकृति कि, कहीं नदी कि, कहीं पानी कि, कहीं बर्फ कि, कहीं पत्थर कि क्यूंकि हमें मालूम है कि सब प्रकृति के अधीन है, प्रकृति एक ऐसी रहस्यमयी रचना है कि जिसे बूझ पाना अभी तक मुनासिब नहीं है, पहाड़ों में तो बिलकुल भी नहीं, तो सबसे अच्छा तरीका यही है कि भरोसा रखो, और काम किये जाओ| बस ये भरोसा अन्धविश्वास नहीं बनना चाहिए |

कहाँ से ये कहानियां जन्मी, ये घटनाएं सच में हुई या नहीं, किसीने देखा या दिमाग का फितूर है, इस सब पे गौर ना करें तो हम देखेंगे कि पहाड़ों में प्रकृति पे भरोसा करना बहुत जरुरी है, ऊंचाई पे बसे घर, पहाड़, बादल, बर्फ, नदी, नाले, कुछ भी, कभी भी विपदा ला सकता है, और कई कई सालों  सिर्फ भरोसे के दम पे इंसान ने काफी कुछ कर दिखाया है| कुंजुम, रोहतांग पास की सडकें, किन्नौर का मौसम, कुल्लू के बादल, इन सबका कोई भरोसा नहीं है|  कोई भी इन्सान हो, उसे हिम्मत , विश्वास होना बड़ा जरुरी है इन जगहों पे की कुछ गलत नहीं होगा, और शायद इसलिए ही ये मंदिर बने , ये रुकने - रोकने की प्रथाएं चली, की देवता ने आशीर्वाद दे दिया है, अब कुछ गलत नहीं होगा, ये एक भरोसा पैदा करने की टेक्निक थी जो धीरे धीरे अंधविश्वास बन गया|

लेकिन ये सब जरुरी भी है और नहीं भी|

वक़्त के बदलने के साथ रीति रिवाज़ भी बदलने जरुरी हैं क्यूंकि रीति रिवाज़ एक लिमिटेड समय तक ही वैलिड  रहते हैं उसके बाद अन्धविश्वास बन जाते हैं| जात पात, देवता का श्राप, देवता की नाराजगी ये सब बातें गौर करने लायक हैं की अब जब हमारे रहने , खाने, पीने, और जीने में काफी हद तक बदलाव आ गया है, क्या जरुरी नहीं है की अब इनपे निर्भरता कुछ हद तक कम की जाए?

देवता के आदेश से कई बार सुपर अड्वेंचर भी हो जाता है, यकीन नहीं आता तो ये देखिये, भुंडा महायज्ञ [Read More About Bhunda Story] का एक विडिओ जोकि २००६ में शिमला के रोहडू में आयोजित हुआ था|


भुंडा महायज्ञ, मौत का खेल, देवता का भेस, रोहडू (शिमला)

P.S: One of my friends has done her research work in the aforementioned regions during her Masters and she has experienced most of these things herself. She has worked in the remotest villages of Kullu Valley, Malana Village, Kinnaur, Upper Mandi, and Old Manali Town. Her research has revealed many astonishing facts about the upper reaches of Himachal Pradesh. Kullu valley is one of the most interesting places of Himachal I have visited. Do you know that they call themselves, the Land of Tharah Karadus?

Monday, November 21, 2011

मिनिबस - सीट कम, सवारी ज्यादा - Journey in a Smalltown in a Minibus

मिनिबस खड़ी थी सड़क के बीचों बीच, सवारियों के इन्तेजार में | ये मिनिबस का भी एक जूनियर वर्ज़न था, ट्रेडिशनल पीला रंग, गाडी के पीछे "हनी-बनी-ते-मनी दी मोटर" लिखा हुआ था काले रंग में, और बस के आगे लिखा था "दिलजले" | बस का रूट देखा तो बस वहीँ जा रही थी जहाँ मुझे जाना था, नवोदय स्कूल | किस्मत से मेरी डेस्टिनेशन आखिरी डेस्टिनेशन थी नहीं तो बस ऐसे ऐसे रह्समायी गाँवों और रास्तों से होके जाती है की आदमी गुम हो जाए पर मंजिल तक न पहुंचे | हमीरपुर डिस्ट्रिक्ट की ख़ास बात ये है की यहाँ सड़कों का मायाजाल है, सबसे ज्यादा घनत्व है यहाँ सड़कों का पूरे राज्य में [रोड डेन्सिटी] और ऊपर से मुख मंत्री का गृह नगर | किसी भी रोड पे गाडी दाल दो, अवाहदेवी या भोरंज निकल जाती है वो सड़क और हर एक गाँव के लिए सड़क है |

अपनी मोटर-साईकिल से उतरते ही मैं बस में घुस गया और मुझे खिड़की वाली सीट मिल गयी , जो की अक्सर होता नहीं है | गाँवों की बसों में खिड़की वाली सीट मिलना बड़ी मेहनत-मशक्कत का काम है | अख़बार, झोले, सब्जी के लिफाफे रखके लोग अपनी सीट मार्क कर लेते हैं, आप खाली समझ के बैठ जाओगे और बस चलने से पहले ही सीट का मालिक आ धमकेगा |

गाँव की बसों में ट्रेडिशनल सी-ऑफ  करने के तरीके नहीं चलते कि जब तक बस नहीं जाती खड़े रहो और बस छूटने पे टाटा-बाय करो, ये बसें जन्म-जन्मों तक खड़ी रह सकती हैं, सवारियों के इन्तेजार में, हीर-राँझा का प्यार कम पड़ जाता है कई बार, नहीं चलेंगी तो नहीं चलेंगी, इसलिए मेरा दोस्त मुझे छोड़ के निकल लिया | बस के कंडक्टर मेनेजमेंट गुरुओं को भी पानी पिला देने वाले पैंतरे  इस्तेमाल करते हैं सवारियां "ढ़ोने" के लिए इस करके बसें लाश कि तरह खड़ी रहती हैं |

खैर बस अगले ४५ मिनट तक वहीँ खड़ी रही, निर्जीव और स्थिर| फिर थोड़ी देर बाद बस का कंडक्टर आया , थोड़ी देर मतलब ४५ मिनट बाद , पर बस का कंडक्टर और अस्सिटेंट  कंडक्टर अभी तक सीन में नहीं थे | गाँव की बसों में अस्सिस्टेंट कंडक्टर  होते हैं , आलमोस्ट  सब बसों में क्यूंकि अक्सर बसों में भीड़  बेतहाशा हो जाती है और एक कंडक्टर सब सवारियों को मैनेज नहीं कर पता है , तो सवारियों में से ही कोई स्कूल या कालेज जाने वाला नौजवान , असिस्टेंट कंडक्टर का रोल प्ले करता है | इसके निम्नलिखित  फायदे हैं:

अ) लड़की पटाने में सुविधा होती है, लड़की को रोज सीट दिलवा दो तो लड़की पटने  के चांसेज बढ़ जाते हैं
ब) कंडक्टर से दोस्ती हो जाती है, कंडक्टर गाँवों/छोटे शहरों में बहुत काम की चीज़ होती है
स) किराया नहीं लगता

फिर पूरे एक घंटे खड़े रहने के बाद और "अगम कुमार निगम"   के दर्द भरे गीत सुनने के बाद बस में जान आई, सवारियों को ज्यादा फरक नहीं पड़ा, पर मेरी रुकी हुई धड़कन एक बार फिर चल पड़ी, बस थोड़ी देर और रुकी रहती तो मैं १२ किलोमीटर कि यात्रा पैदल ही तय कर लेता | कंडक्टर ने १०-२० लोगों को छत का रुख करने को कहा और खुद गुटका चबाता हुआ [राह चलते] लोगों से गप्पें मारता हुआ बस को चलने का आदेश दिया | रविवार के दिन बसें कम होती हैं, और सवारियां इकठी हो हो के अथाह हो आती हैं, तो बस के अन्दर पूरा कुम्भ का मेला लगा हुआ था, और मेरे बगल में बैठी हुई आंटी मजे से मूंगफली खा रही थी और छिलके बस में ही फेंक रही थी , एकदम आराम से, भीड़ भड़क्के से कोई फरक नहीं पड़ा उसको| मूंगफली मुहं में और छिलका बस के अन्दर, एकदम अचूक निशाना |


खैर बस चली, धीरे धीरे, मेरी परेशानी का लेवल बढ़ता चला गया और सवारियां उतरती चढ़ती चली गयीं, पांच उतरती थी, दस चढ़ती थी, भीड़ ख़तम होने का नाम नहीं लेती थी| पूरी बस में मुझे छोड़ के कोई भी विचलित नहीं था बस की देरी को लेकर के, उनके लिए रोज का काम था, उनके लिए इन्तेजार करना ही जीवन है और मेरे लिए तेज़ भागना, जल्दी जल्दी, सब कुछ जल्दी चाहिए, बस एकदम से| वहां जिंदगी बहुत धीमे से चलती है गाँव में| धीरे धीरे गाँव बदल रहे हैं, जमीन है पर खेती नहीं है क्यूकी अब खेती नहीं कोई करना चाहता, कुछ आई.आई.एम् और आई.आई.टी वाले कहते हैं कि खेती करेंगे पढ़ लिख के पर  बाकी सबको शेहेर जाना है| मेरा एक दोस्त है आई.आई.एम् लखनऊ का , कहता है गाय पालेगा, खेती करेगा, भाई अच्छी बात है, बहुत अच्छी बात है, खेती नहीं करेगा तो शेहेर वाले तो कहीं के नहीं रहेंगे, अब पहाड़ों में हरियाली न रही तो काहे के पहाड़? पूरे डेढ़ घंटा गाँव गाँव में घूमने के बाद मैंने पांच किलोमीटर का सफ़र तय किया, अब मैं भी एक गाँव वाला हो चुका था, कोई जल्दी नहीं, कम से कम एक बस तो है , पैदल चलने से तो वही अच्छा है, यही  संतुष्टि का भाव लिए उतर गया मैं |

 मैं भी एक गाँव में ही रहता हूँ सुंदरनगर में , आप भी एक गाँव से ही आये हैं, आज दिल्ली, मुंबई, गुडगाँव में हैं, पर घर आपका भी गाँव में ही है, एक छोटा सा गाँव, जहाँ आज भी वही मिनी बस चलती है, कम सीटें और ज्यादा सवारी के साथ| वहां बसों का इन्तेजार  करना एक जरुरत है , आएगी तो आएगी नहीं तो पैदल चलो| मंडी, काँगड़ा, हमीरपुर, सोलन, कुल्लू, शिमला, सब जगह यही मिनिबस चलती है, वही पीला रंग, वही शेर-ओ-शायरी , वही दिलजले ड्राइवर, और वही घिसे-पिटे से रूट |

पर कभी घर आओ "एक हफ्ते" कि छुट्टी पे तो बैठना इस मिनिबस में, मजा आएगा |

Wednesday, November 16, 2011

आशापुरी की गर्भ-गुफा और रहस्यमयी नगरियाँ - (डाडासीबा,चढ़ियार, और हारसिपत्तन) - Ashapuri Temple and Mysterious Dadasiba

बचपन में ध्रुव, डोगा, और नागराज की कॉमिक्स पढ़ा करता था [आज भी पढता हूँ], और मेरी हरकतें भी उनकी तरह ही हो जाया करतीं थीं [आज भी हैं] , गाड़ियों के नंबर, माईल-स्टोंस, बसों के रूट सब एकदम से याद हो जाया करते थे| बस ऐसे ही तीन रूट मेरे दिलो दिमाग पे छाए रहे, एक था डाडासीबा से शिमला, और दूसरा हारसिपत्तन से दिल्ली | मैं सोचता रहता था की क्या गज़ब नाम है, जगह भी जबरदस्त होगी, बड़ा मन हुआ करता था जाने का क्यूंकि नाम ही ऐसा गजब है, डाडासीबा, ऐसा लगता है जैसे बोम्ब बनाने की फैक्ट्री  हो उधर कोई, पर बचपन में बाउजी के पास स्कूटर हुआ करता था तो स्कूटर पे डाडासीबा तो जाया नहीं गया | अभी हाल ही में मेरा एक दोस्त होके आया डाडासीबा और उसने जिस तरीके से एक्सप्लेन किया, रहा नहीं गया और पहुँच गए डाडासीबा |

डाडासीबा एक छोटा सा गाँव है काँगड़ा डिस्ट्रिक्ट  में, और वहां के बाशिंदे कहते हैं कि पूरी दुनिया डेवेलप  हो जाएगी, पर डाडासीबा का कुछ नहीं हो सकता, देख के तो यही लगा कि सच ही कहते हैं | डाडासीबा पहुंचना हो तो जवालाजी से निकल जाओ देहरा कि तरफ और वहां से तलवाड़ा रोड पे निकल लो, किसी भी माईल स्टोन पे डाडासीबा नहीं लिखा होगा, पर घबराने कि जरुरत नहीं है सीधी सड़क है, चलते जाओ, डाडासीबा जब आएगा तो पता चल जाएगा | जब ये बता पाना मुश्किल हो जाए कि  सड़क में खड्ड आ गयी   या खड्ड में सड़क बना दी गयी है , तो समझ लो कि डाडासीबा आ गया | पर कुछ अच्छा पाना हो तो कष्ट भोगने ही पड़ते हैं, तो जैसे ही डाडासीबा पहुँचो आपको दिखता है महाराजा रणजीत सागर डैम, जिसके ऊपर पौंग डैम बना हुआ है | जिन लोगों ने मुंबई देखा हुआ है उनको लगता है कि मुंबई का बीच आ गया और जिन्होंने नहीं देखा हो, उनको लगता है कि मुंबई ऐसा ही होगा|

मल्लाह, किश्ती, और डाडासीबा की एक शाम 

डाडासीबा @ इट्स बेस्ट 

लोनली प्लानेट 

दूर दूर तक देख लो, पानी ही दिखेगा, जमीन नहीं दिखती, आसमान और जमीन में फरक नहीं दिखता| हम जब पहुंचे तो सूरज ढल चुका था, पानी सुनहरे रंग का हो चुका था और दूर पानी में मछली पकड़ने वाला जाल फेंक और खींच रहा था | मेरे ज़हन में सिर्फ एक आवाज़ गूँज रही थी " डा डा सिबा " | जगह का नाम और आँखों के सामने का नजारा बिलकुल राज कॉमिक्स कि कहानियों का कोई गाँव लग रहा था | वहां कैम्पिंग और बोन-फायर करने का बड़ा आनंद आएगा , मछली पकड़ने की कला आती हो तो वहीँ पकड़ो, भूनो और ओल्ड मोंक के साथ खा जाओ|

डाडासीबा से निकले हम एक और बचपन कि याद को ताज़ा करने, आशापुरी मंदिर, वहां से कहते हैं किस्मत वाले दिन सारा  हमीरपुर, बिलासपुर, और रंजित सागर दिखता है, पर अपनी किस्मत हमेशा अगले कल ही आती है सो वैसा ही उस दिन हुआ | दिन दोपहर में पहुँच गए आशापुरी लेकिन आसमान में बादल थे तो कुछ नहीं दिखाई दिया, बस ब्यास नदी दिख रही थी पहाड़ियों को काटती हुई | आशापुरी का मंदिर पहाड़ी कि चोटी पे है और ये मंदिर भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग कि प्रोपर्टी है | सुनिए इस मंदिर कि कुछ विशेषताएं :

कहते हैं ये मंदिर बैजनाथ के प्रसिद्द शिव मंदिर के साथ का बना हुआ है | यहाँ रहने के लिए कोई सराय/धरमशाला नहीं है लेकिन वहां लोगों कि दुकानों में रहा जा सकता है | दूर दूर से लोग आते हैं यहाँ क्यूंकि यहाँ काफी लोगों कि कुलदेवी है, शिमला, नालागढ़, बरोटीवाला, सोलन, ये कुलदेवी सेलेक्ट कैसे होती है ये नहीं पता पर पहुँच  बड़ी है इस मंदिर की|  अन्दर किसी ब्रिटिश महाराजा के दो सिक्के (coins) गड़े हुए हैं, पुजारी परिवार की मानें तो अंग्रेजों ने इस मंदिर में स्वयम्भू पिंडी को तोड़ने के लिए सिपाही भेजे, सिपाहियों ने भरपूर जोर आजमाइश की लेकिन पिंडी नहीं उखड़ी, हाँ पिंडी के नीचे से मधुमखियाँ निकली, जिन्होंने सैनिकों को मार भगाया | फिर तबसे ब्रिटिश लोग भी मंदिर की महिमा को मानने लगे, कितना सच-कितना झूठ इसपे गौर न करें तो स्टोरी काफी इंटरेस्टिंग है | समय के साथ ये मंदिर विखंडित होने लग पड़ा और रही सही कसर पुरातत्व विभाग ने पूरी कर दी, मंदिर की नक्काशी की हुई छत  पे कंक्रीट  चढ़ा दिया गया है और अब ये मंदिर पुराना कम और कम पैसे लेके घटिया ठेकेदार से बनवाया हुआ ज्यादा लगता है |

हिमाचल प्रदेश ग्रामीण क्षेत्र की सबसे बड़ी पेयजल योजना,भडारण क्षमता - १६ लाख लीटर ,जयसिंहपुर 

आशापुरी मंदिर 

नक्काशी की हुई मंदिर की दीवार 

पुरातत्व विभाग का चमत्कार, मंदिर की छत का बेडा गरक कर दिया गया है 

इससे भी जबरदस्त है वैष्णो देवी गुफा जो कि मंदिर से पांच किलोमीटर की दूरी पर है , गुफा में है एक गर्भ द्वार और यकीन मानिये वो गर्भ के द्वार जितना ही छोटा है | पुजारी बाबा उसे गर्भ जून कह रहा था और उस गुफा की ओपनिंग देख के मुझे हल्का सा डर लगा की इसमें फंस गए तो मारे जायेंगे | मुझे याद है २००२ में मेरी माँ भी घुसी  थी इस गुफा में और फंस गयी थी, पर मुझमे और मेरी माँ में  "एक बटा दो" का फरक है तो मुझे लगा की मैं नहीं फंस सकता | गुफा द्वार में घुसने से पुण्य मिलता है ऐसा बाबा का कहना था, मुझे पुण्य मिला या नहीं पर बाय गाड  मजा बड़ा आया | उसी गुफा के ऊपर है कैलाश पर्वत,एकदम नेचुरल  मेड| ऐसा लगता है कैलाश का प्रोटोटाइप रखा  हो प्लास्टर ऑफ़ पेरिस  से बनाके | वो पूरी चट्टान बड़े अजीब तरीके से टिकी हुई  है और मुझे ऐसा लगा की कभी भी गिर जाएगी पर नहीं गिरती तो नहीं गिरती | उस चट्टान के ऊपर सड़क भी बनी हुई है, सोने पे सुहागा |

कैलाश पर्वत, इसने चट्टान को जैसे अपने ऊपर संभाल लिया है 

 गर्भ द्वार के उस पार , इस छेद से उस पार जाने में हवा टाईट हो जाती है 

तबला, डमरू, चिमटा, और कैलाश पर्वत सब अवेलेबल है यहाँ  

 गुफा के अन्दर पुजारी बाबा 

पत्थर के लड्डू, ऐसे लड्डू गुफा के अन्दर टनों के हिसाब से मौजूद हैं 

 खैर वहां से निकले तो दो रास्ते हैं जाने के, एक पालमपुर होके, और एक सुजानपुर-जयसिंहपुर होके , लेकिन हमें तीसरा रास्ता दिख गया था, चढ़ियार - हारसिपत्तन  से जाने का और मजे कि बात ये कि ये वाला रास्ता स्टेट हाइवे - १७ है, जिसका मतलब सड़क पक्की होगी, एक दो गाँव में सड़क पूरी कंक्रीट कि बनी हुई थी, जो कि हिमाचल में  बहुत कम देखने को मिलता है | चढ़ियार  कब आया कब गया कुछ पता नहीं चला, यहाँ से एक बस चलती है चढ़ियार -शिमला और  मुझे लगता था कि कोई क़स्बा होगा रंग बिरंगा सा, पर चलो जाने दो | खाली सडकें , जंगल , ब्यास का बेसिन, और दूर दूर तक फैले हुए गाँव, एक जगह तो ऐसा लगता है कि जैसे स्पीती में पहुँच गए हों|  और फिर आता है  हारसिपत्तन, हारसी गाँव है और पत्तन नदी के तट को कहते हैं, यहाँ पर दो गाँवों के नाम को मिलाके एक नाम दिया गया| हारसी पत्तन में कुछ ख़ास नहीं है बस एक पुल है बहुत बड़ा, जिसके एक तरफ काँगड़ा, एक तरफ मंडी और आजू-बाजू में हमीरपुर  डिस्ट्रिक्ट पड़ता है | वो पुल बड़ा फेमस है प्रदेश में, ठीक  लम्बा चौड़ा पुल है |

वहां पहुँच के मेरे दिल को बड़ा सुकून मिला, और मेरे दोस्त के हिसाब से वहां कोई प्राचीन मंदिर जरुर होगा क्यूंकि वहां से एक बस चलती है कटड़ा (जम्मू) के लिए, कहने का मतलब ये है कि जिन छोटे छोटे गाँवों से जम्मू-कटड़ा-वैष्णो देवी के लिए बसें चलती हैं, वहां एक सौ प्रतिशत या तो कोई मंदिर होता है, ये रिलीजियस सिग्निफिकेंस होता है, खैर अँधेरा हो चुका था तो मंदिर तो हम नहीं ढूंढ पाए , और कैमरा की बेट्री भी जीरो  हो चुकी थी तो न पुल का फोटो खींच पाए और न ही जगहों का, पर यकीन मानिये जब ब्यास का बेसिन दीखता है और ढलता सूरज पूरे आसमान को सुनहरा बना देता है तो ऐसा लगता है जैसे अलिफ़ लैला की कहानियों का कोई गाँव है|

रोयल इनफिल्ड सनसेट , हारसिपत्तन


ट्रेवल  रूट:
हमीरपुर- जैसिन्ह्पुर-आशापुरी - 75  किलोमीटर, कच्ची और तंग सड़क, 26  किलोमीटर तक स्टेट हाईवे - 39|
वापसी: आशापुरी - चढ़ियार - हारसिपत्तन - संधोल -सुजानपुर-हमीरपुर , स्टेट हाईवे - 17 , अच्छा मगर तंग रोड | 


P.S: तीसरा रूट है घोडिध्वीरी-दिल्ली, जगह का नाम सुनके लगता है मुग़लों की सल्तनत का कोई गाँव हो, जगह का पता चलते ही वहां भी जाया जाएगा | 

Monday, November 7, 2011

जोरू का ग़ुलाम

तुम किचन में क्यूँ खड़े थे? कुछ तो ख्याल करो , मर्द हो, मर्दों को ये सब शोभा नहीं देता |
माँ चाय ही तो बनायीं मैंने, इसमें बुराई क्या है?
तो चाय तुम्हारी बीवी नहीं बना सकती थी?
वो थकी हुई थी माँ , आपको भी पता है ऑफिस में थी वो सुबह से, अकेली कहाँ कहाँ जान देगी वो ?

बेटा मेरी थकान तो कभी नहीं दिखी तुम्हें| मैंने तुम्हें इतने नाज़ों से पाला पर मेरी थकान तो तुम्हें कभी नहीं दिखी|

कमरे में सन्नाटा छा गया | माँ और बेटा एक दूसरे से नजरें नहीं मिला रहे थे |

पड़ोस की बूढ़ी अम्मा बाहर दरवाजे पे खड़ी थी,  यश के चेहरे पे खीझ देख के उसे सारा माजरा समझ आ गया, हाथ पकड़ के वो यश की माँ को अन्दर ले गयी| 

वो बूढ़ी अम्मा उनके घर के बगल में रहती थी, कोई बीस साल से , और वो एक खुशहाल घर को नरक में तबदील होते देख रही थी| जबसे यश की शादी हुई थी , यश की माँ को यश के बर्ताव में कुछ भी ठीक नहीं लग रहा था| सुबह की चाय यश बनाता था, रात को भी किचन में खड़ा मिलता था | बस इसी सब से यश की माँ को दिक्कत थी, की शादी के पहले तो कभी लड़के से काम नहीं करवाया, अब जब शादी हो गयी तो लड़का एकदम से घरेलू  हो गया है, ये सोच सोच के उसका खून जलता रहता था, रही सही कसर पड़ोस की औरतें पूरी कर दिया करतीं थीं|

उस बूढ़ी अम्मा को काफी पहले ही ये आभास हो गया था की जो अब हो रहा था इस घर में उसे पूरा यकीन था की एक दिन ये जरुर होगा | इस घर में उसने अजीब सा हिसाब देखा था और उसने उम्मीद नहीं की थी की पढ़े लिखे लोगों के घर में ऐसा होता होगा | बच्चे स्कूल से आयेंगे तो लड़का कपड़े दरवाजे पे ही खोल देगे, खाना खाएगा तो माँ जूठी प्लेट तक उठा के किचन में रखेगी | लड़की को पूरा सलीका सिखाया था उन्होंने , खाना बनाना , कपड़े धोना, बर्तन धोना | कोई मेहमान आये घर में तो पानी पिलाने से लेकर खाना बनाने का सारी ड्यूटी लड़की की थी, ऑटोमेटिक मोड में बिना किसीके कुछ भी कहे | लड़का बैठता था भरी महफ़िल में, उसके गुणगान किये जाते थे, पढने में अच्छा था, पढने में तो लड़की भी ठीक थी, पर लड़कियों के टैलेंट को तौलने का पैमाना हमेशा से ही अलग रहा है |

बूढ़ी अम्मा समझाती भी थी की लड़के को भी काम सिखाओ, अब ज़माना बदल गया है, लड़की अगर बाहर का काम करती है तो लड़के को भी घर का काम आना चाहिए, और कम से कम खुद का काम तो आना ही चाहिए | पर अनपढ़ों को अक्सर बेवकूफ भी मान लिया जाता है, तो बूढ़ी अम्मा की बात पे किसी ने गौर नहीं फ़रमाया |

अब अगर किसीको आप बचपन से पानी की जगह दूध ही पिलाओ, या स्पून ब्रेस्ट फीड ही करते जाओ तो आदत तो लग ही जाएगी |अब किसीके कच्छे भी माँ या बेहेन ही  धोये तो उसको काहे की आग लगी है जो अपना काम खुद कर ले, बस वही यश के साथ हुआ, उसको आदत लग गयी, सिर्फ पढने की और अपना काम ना करने की | सिर्फ पढने से ही देश चलता होता तो क्या बात थी |

जब पढ़ी लिखी सुन्दर सुशील बीवी घर में आई तो सबकी ख़ुशी का ठिकाना ना रहा | साथ में सरकारी नौकरी, उससे सोने पे सुहागा हो गया | अब लड़की जब पढ़ी लिखी थी तो  काम तो करेगी ही, बर्तन भांडे धोने के लिए थोड़े ना कोई पढाई करता है | पर यश की माँ ठहरी १९७० का मॉडल, बहू है तो काम वही करेगी | यश ने देखा की बीवी किचन में भी जुटी है, दफ्तर में भी, तो उसने हाथ बांटने की पेशकश की | बीवी का दर्द ज्यादा टाइम देखा भी नहीं जाता | बस वहीँ गड़बड़ हो गयी | यश की माँ को लगा की लड़का  तो हाथ से गया अब | पर वो ये भूल गयी की लड़की अर्धांगिनी बन के आई है, मतलब की आधा हिस्सा, हिस्सा आधा दो और काम पूरा लो ऐसा तो किसी भी देश में नहीं चल सकता |

और उस दिन से यश पे जोरू का ग़ुलाम का लेबेल लग गया |

आस पड़ोस की औरतें और यहाँ तक की स्कूल जाते बच्चे भी यश को ज़ोरु का ग़ुलाम नाम से जानने लगे, बच्चा तो वही सीखेगा ना जो देखेगा, सुनेगा | वरना बच्चे को क्या पता होगा जोरू का और जोरू के ग़ुलाम का |

अनपढ़ और लाचार बूढ़ी अम्मा के लिए ये समझना मुश्किल हो गया था कि अपने ही घर में खाना बनाना, बर्तन धोना, यानी कि अपना काम खुद करना कब से ग़ुलामी हो गया? अपनी ही बीवी के साथ कोई अगर काम को आधा आधा कर ले तो उसे ग़ुलाम कहने वाले तो सही मायने में अनपढ़ ही होंगे| वो सोच रही थी कि गलती किस कि है, यश कि जिसने कभी अपनी माँ का हाथ नहीं बंटाया या यश कि माँ कि जिसने अपने लड़के को काम कि हवा ही नहीं लगने दी, या यश की बीवी की जो सारा काम  खुद नहीं कर सकती |

अम्मा यश के घर से बड़बड़ाती हुई निकली, शुक्र है मैं पढ़ लिख नहीं गयी, नहीं तो मैं भी ............ |

क्या आपके घर में भी हॉउस होल्ड ड्यूटी ऑटोमॅटिकली  आपकी पढ़ी लिखी बेहेन ही देखती है, जैसे कि खाना बनाओ, कपड़े धोना, बर्तन धोना|
 

और सबसे ज्यादा इम्पोर्टेंट सूखे हुए कपड़े छत से लाना ? क्या आपने कभी अपने  धुले हुए कपड़ों को तह लगाया है? या वो भी आपकी बेहेन ही करती है ?   

अगर ऐसा है तो आप में भी ज़ोरु का ग़ुलाम बन्ने का भरपूर  टेलेंट है |  

Monday, October 31, 2011

सात से पाँच - (फुल्ली - लोडेड) - Life of Truck Drivers in India

अड्यार (चेन्नई) से मनाली २६८०  किलोमीटर दूर है, और बड़े से बड़ा घुमक्कड़ भी ऐसी यात्रा करने से पहले कई बार सोचेगा की मोटर-साईकिल ले के जाऊं, या दिल्ली/चंडीगढ़ तक जहाज ले लूँ, और वहां से आगे मोटर-साईकिल| लेकिन सड़कों पे चलते बड़े बड़े ट्रक इस यात्रा को बड़ी आसानी से पूरा कर लेते हैं |

कोलकाता से कश्मीर,  चेन्नई से मनाली, सूरत से कटक, बेंगलुरु से जयपुर, ट्रक अक्सर इन यात्राओं पे चलते हैं, एकदम रेगुलर शेड्यूल से, बिना रुके, बिना थके| मेरे पड़ोस में एक भाई साहब रहते हैं, मैं अपने आप को बड़ा घुमक्कड़ समझता था, पर सिर्फ तब तक जब तक मुझे ये मालूम नहीं पड़ गया की वो भाईसाहब, तीन बार लेह जा चुके हैं, दो बार बेंगलुरु, एक दो बार चेन्नई, वो भी लोडेड गाड़ी के साथ | जयपुर से संगमरमर लाना उनके दायें-बायें हाथ का खेल है, ट्रक उठाओ, एक दिन रात में दिल्ली , उससे अगली रात में जयपुर, और दो रात बाद वापिस मंडी, १४०० किलोमीटर एकदम ओवरनाईट(s) में फिनिश| मैं एक बार गया था मोटर साईकिल से,  मेरी हवा पूरे एक महीना टाईट ही रही थी| 

आपने देखा होगा की कैसे आपको ट्रक वाला हाथ के इशारे से पास देता है, इंडिकेटर दिखता भी नहीं इतने बड़े ट्रक में| शायद पहाड़ों में एक हाथ बाहर निकाल के पास देने की आर्ट भी ट्रक ड्राइवर्स ने ही शुरू की है , जल्दबाज़ ड्राइवर्स को ट्रक वाले हाथ दिखा के रोक भी लेते हैं कई बार की भाई रुक जा आगे मौत का सामान है , पर बहुत छोटी बात है ये, याद नहीं रहता क्यूंकि जल्दी बहुत है हम सबको, जाने, आने, और पहुँचने की |

सरिया, समींट, लोहा, पत्थर, आटा, चावल, मक्की, सेब, मशीनरी, रोड रोलर, पॉवर प्लांट्स की टरबाइन, और हजारो लीटर तेल , भाई आर्मी के ट्रक तेल से चलते हैं, ज़ज्बे और हिम्मत से सिर्फ लड़ाई होती है, बाकी सब के लिए तेल पैसा लगता है | ये सब ट्रक वाले ही लेके जाते हैं क्यूंकि पहाड़ों में रेल तो चलने से रही, चाइना में कहानी दूसरी है, पर इंडिया में तो ट्रक वाले ही माई बाप हैं| हिमाचल में अगर पॉवर प्लांट ना हो तो हम सब लोग सिर्फ आलू, मटर और सेब उगायें, और पॉवर प्लांट की मशीनरी ट्रक ही लेके आते हैं यहाँ| किन्नौर, मनाली, कुल्लू, रामपुर, रोहडू, सब जगह ट्रक ही चलते हैं, कितनी ही बड़ी मशीनरी हो, ट्रक वाला ड्राइवर सब लेके आता है|

नेशनल हाइवे 21 पे अक्सर आपको ट्रक दिख जायेंगे, सड़क के किनारे खड़े हुए, और कई बार सड़क के बीचो-बीच| और रही बात सोने की, तो कभी ट्रक के ऊपर से ड्राइवर निकलते हैं, कभी नीचे से| सर्दियों के दिनों में एक अधिया लगाके सो जाओ ऊना नंबर वन  का और गर्मी सर्दी सब बराबर| कई बार सड़क पे आपको दिखेगा की सुबह सात बजे ट्रक चला है आपसे आगे मटकता हुआ, कभी इधर-कभी उधर, क्यूंकि ड्राइवर चलते ट्रक में ब्रुश कर रहे होते हैं, ब्रुश यू सी - दन्त मंजन|

देश के लगभग सभी राज्यों में ट्रक एक ही टाइम पे चलते हैं, शाम पांच बजे से सुबह सात बजे तक, दिन में दिक्कत होती है आम जनता को उनके चलने से| वैसे आम जनता को हर एक चीज़ से दिक्कत होती है, लेकिन ट्रक के चलने से ज्यादा दिक्कत होती है| किसी ट्रक के पीछे चलना किसी भी गाडी वाले के लिए सबसे बुरा सपना होता है | ट्रक अगर लोडेड हो तो क्या कहने, चींटी की चाल से चलते ट्रक के पीछे चलने में जो फ्रस्ट्रेशन और खीझ होती है उसका कोई मुकाबला नहीं है | पर ये ट्रक अक्सर कई बार नैय्या भी पार लगा देते हैं, अक्सर लोग किसी ओवेरटेक करते हुए ट्रक के पीछे अपनी गाडी चिपका देते हैं, रास्ता ट्रक साफ़ करता है और आप की भी निकल पड़ती है, मुश्किल आने पे साइड का इंडिकेटर जलाओ और दांत फाड़ते हुए अपनी लेन में घुस जाओ | कुछ लोग ऐसे मौकों पे सामने से आती गाडी के ड्राइवर से नजर नहीं मिलते, भाई चलती सड़क पे अपनी गलती मानें या जान बचाएँ| हिमाचल में जो टूरिस्ट आते हैं, वो तो बस ट्रक के पीछे लगके ही पास लेते हैं, कभी कोई ट्रक दिखे आगे से आता हुआ, तो जान लेना की उसके पीछे कम से कम दो गाड़ी तो जरुर छिपी होगी, मौका ताड़ के आगे निकलने की फ़िराक में| और गाड़ी पे पंजाब - हरयाणा का नंबर हो, इसके चांसेज काफी होंगे |

मैं एक दफा एक ऐसे ही जांबाज़ ट्रक ड्राइवर से मिला . चेन्नई से लेह जा रहे थे भाईसाहब, पूरा एक महीना हो गया था घर से निकले| आर्मी का कुछ सामान ले जा रहे थे, कह रहे थे, टूटी फूटी हिंदी में, कि साहब जान जाती है आर्मी वालों को देश को बचाने में उनके लिए सब करेंगे|  और सबसे इंटरेस्टिंग बात ये थी की चेन्नई में भी ट्रक ड्राइवर स्पेशल गाने बनते हैं, चमकीला स्टाइल [अमर सिंह चमकीला: द लेजेंड] | बड़ी अजीब बात है की इस देश में कोई एक भाषा नहीं है फिर भी चेन्नई से चल के एक अनपढ़, हिंदी ना जानने वाला ट्रक ड्राइवर मनाली पहुँच जाता है, हर साल, उसको किसी भाषा की जरुरत नहीं पड़ती|

मैंने सोचा कि जिंदगी तो ट्रक वाले कि भी किसी आर्मी मैन से कम नहीं है, महीनों घर से बाहर, कोई खोज नहीं,कोई खबर नहीं| और अगर किसी खाई में लुढ़क जाओ तो महीनों लग जाएँ लाश निकलने में, कई बार लाश मिलती भी नहीं, और मिलती भी है तो लोकल पोलिस वहीँ लोकल मुर्दाघर में मामला निपटा डालते हैं, इलेक्ट्रिक चेयर पे बिठाके, न लकड़ी न धुआं, न पंडित, न पुजारी, लापरवाही का केस अलग चलता है|

बस एक दिक्कत है, जब से रतन टाटा और अशोक लेलैंड एंड कंपनी ने पॉवर स्टीरिंग लगवा के दिए हैं ट्रक में, कुछ जांबाज़ ड्राइवर, लोडेड ट्रक को मारुती स्विफ्ट समझ के चलते हैं, बस वहीँ थोडा सीन गड़बड़ हो जाता है| एक बार मेरे ऊपर चढ़ गया था ऐसा ही एक शूरवीर, तब मुझे अपने पिताजी की एक बात याद आ गयी की जिस भी ट्रक पे एच पी - ११ (HP-11) नंबर लगा हो उससे पंगा नहीं लेने का| मैंने लिया और पाया गया, आप ध्यान रखना, HP-11 का मतलब है द रियल रोड किंग, न पास मांगने का, न ही हीरो बनने का| 

हर साल लेह जाने वाले ट्रक खाइयों में समा जाते हैं, बीसियों ट्रक, जो इंडियन आर्मी का सामान लेके जाते हैं | लोडेड ट्रक को सीधे रोड पे चलाना ही मुश्किल का काम है, हिमालय की वादियों में तो एक टांग पे तपस्या करने जैसे है| चार-पांच फीट कीचड़ और जल्दबाज़ टूरिस्ट ट्रक वालों को अक्सर घुसा दिया करते हैं| इस साल भी कई ट्रक रोहतांग में कई कई दिन फंसे रहे और ५-६ तो गिरे  पड़े थे, दो सौ मीटर गहरी खाई में|

पर आर्मी वाले अलग हैं, देश के लिए मरते हैं भाई, ट्रक वाले ऐसे ही मर जाते हैं|

सात से पांच में अँधेरा होता है ना, और अँधेरे में कुछ ख़ास दिखाई नहीं पड़ता|



P.S. अड्यार (चेन्नई) में रोयल एनफील्ड की फैक्ट्री है|

Monday, October 17, 2011

(Airborne) | Paragliding at Bir-Billing | The Paragliding Heavens of India


 
The Bir Billing Flying Squad

Courage in your heart, money cash in your pocket, and faith in the chap helping you fly is all it takes to jump in the air from a cliff.  3500 meters above the ground level, tied to a paraglider with the help of strings bungee cords, you got to accept as truth that you will make it through.

Mind is a bitch and sometimes it plays cruel games with you and coincidentally those free fall moments mark the start of one such game. To divert your mind you may ask questions like what lies on the other side of the mountain range on your left, right, and backside.  You may ask your flying trainer about his certifications and his experience. However, that is not the best question you should ask when you are 3500 meters up in the air because considering the way(s) we get certificates in our country his certificate may or may not help you, after all we make doctors and engineers just like that.

If you are scared, you may ask about the emergency measures they take when you fall free or something goes wrong. Most of the times, this question pops up in your head when you look down, the thick forest looks like a garden of colorful shrubs not more than few meters in height. But when you realize that you are up in the sky, amidst the clouds, and sometimes high above them, it becomes your birthright to ask about the emergency measures because you never know, ways of God are just beyond our minds you see. Most of the times they will tell you it will take at least 15-20 minutes to land safely, emergency measures come after that. In case you fall down, the rescue team will definitely find your bones, they are too good at that.

A few days ago, perhaps on 14th October a trained and skilled pilot, a lady from Czechoslovakia died in the thick forest, which looks like garden of shrubs from the sky above. She was probably a participant in the upcoming Mini World Cup but harsh winds of the Lahaul Valley knocked her down. Nevertheless, if you have to go then you have to go. So we decided to go as well.

October 16 marks the start of the Mini World Cup in Bir-Billing Valley and we were lucky enough to fly amongst the most talented and best pilots of the world. Bir-Billing is amongst the best five flying sites of the world, arguably the second best site in the world. On October 15th, pilots were doing skill and still testing in the air. When you see someone flying in the air, like a bird, it makes you feel like jumping in the air and lose control but then you have to think about your bones also. The task is simple, wear the safety gear, understand the terminology, which is Run, Push, Don’t Sit, and that’s all. The take off site is approximately 2300 meters above the sea level, and when you look at people flying around you, it looks very easy. 

 
The Take Off Site at Biling

 
The Landing Site at Bir
 
However, you have got to ask this from the man who fell down at the time of take off, injured his knee. You would also like to ask the same thing from the guy who left his one shoe at the take-off site because it slipped while taking off [how that happened, I do not know]. May be they did not find it easy.

Once in the air, you actually do not understand what’s happening because it is your first time. Once the wind starts making mystifying noises around you, and you start gaining height, and you see other gliders flying past you, you actually come to your senses. By the time you are asked to make yourself comfortable and be seated, you are in the clouds. And all of a sudden you see a guy waving his hand towards you from another cloud.

How do you feel then? I think putting that feeling in words is not my expertise as yet. I was wondering what would happen if we collide with another glider. I did not dare ask this question because you should not ask and know about everything. As you start making rounds in the air, just like an eagle or a hawk, your trainer would ask you, “How are you feeling sir?” 

 
Mysterious Silence

If only you can tell him how you feel. I have never remained silent in my life for 45 minutes at a stretch, even when I am asleep I speak, well sometimes. But those 45 minutes in the air are and will remain an exception.

Pessimism, realism, practicality of life, and everything else goes out of the window when you are 3500 meters above the level tied to strings and relying on an unknown guy for your life.

Optimism and Faith work well though.
 
The Man who Lost his Shoe [yet enjoyed] 

Best Time to Visit Bir-Billing: April-May and September-October
Contact Person: Arvind Paul (Champion 2010)
Contact Number: 9418610219, Reference: Sunny “Barot King” from Hamirpur
Flying Fee: 2000-3000 per flight per person, Negotiable though. If you can speak Pahadi, helps a great deal.
Nearby Places of Interest: Barot, Baijnath Temple, and Chaprot

Wednesday, October 12, 2011

The First Ride - Once Upon A Time In Spiti


You quit your job? You should have at least informed us, if you think asking was too much to do. 

Dad, it was bound to happen, the place sucked to the core and moreover it is over now, let us save our energy for better things.

Choose wisely, it is going to be your life. May I know what better things are you talking about?

She calculated something in her mind and then she remained silent.

What is it now? Her father probably sensed that something was hidden beneath.

I am going for a Himalayan Ride; the trip will last for a month.

Well.

With a group of four friends, I would be the only girl.

And?

We are going on a motorcycle, as she completed her last sentence, she closed her eyes.

Well, for a normal man this episode was enough for a fatal heart attack, but I am not normal, as I have an abnormal daughter, so I might survive. Stay Safe. We can resume our serious talks when you come back.

The very next morning, she was all set to ride in the Himalayas. She had heard stories, seen photographs, and known few people who had been there. She expected excitement and fun but she did not know that in the Himalayas, definitions of fun, fear, and life change, forever. The ride was not going to be easy because the Himalayas are just not made that way for the first timers and once your first ride is over, you become habitual of pain, suffering, struggle, and the Himalayas. And that is when you add a new meaning to an old word in your dictionary, the meaning of fun changes.

Where did this come from, was the first thought that struck her mind as she was riding high on the highest motor-able road of the Earth. Color changing mountains, roads carved through them, and people. The sun and the sky were never so close and she felt as if she could touch the sky with a little effort.  She had never expected life to be so different just a few hundred kilometers away from her place. As she stopped her motorcycle near a restaurant, she saw her face in the mirror and could not help smiling.

They named it right; it is a dry valley indeed, sucks blood through your skin. I look like a retard and my mother might never come out of the coma she would get into if she finds me in this condition, she said.

That’s why I say if you want to look good, kitchen is the best place for you, no heat, no sunburns, no nothing, said one of her riding companions.

I would trade this ride one hundred times over anything. Next stop is 200 kilometers from here and that means eight hour continuous journey, so come fast, she said squatting on the road.

Her friends disappeared soon or maybe it was the grandeur of the Himalayas that absorbed their existence within itself. All she could see was the majestic peaks, covered with the snow and white clouds taking different shapes.

Aren’t they lovely? Moving and yet standing there always. I find them the greatest mystery on the Earth,  distant voice approached her.

A foreigner was coming towards her, dressed up in the pahadi style, the traditional cap resting on his head in a funny way. He looked like a pahadi hippie.

I don’t’ know, what I am feeling right now is not what I usually feel, I am still trying to figure out if I am happy, overwhelmed, or a retard.

Your first ride? Is it? When I came here for the first time, I just could not believe myself. And now when I see your open mouth, charred skin, and your shimmering eyes, I know that you don’t believe yourself either.

Where from are you coming and where would you go from here?, she asked.

I live here.

Means?

What do you think I mean? I live here means this place is now my new hometown, for the last three or four years or so, I have lost count.

Wish I could do that too. This place is just wonderful. When I grow old, I would like to live here permanently, she said as removed the charred skin from her cheeks

Visiting this place and living here are two different things my love and believe me the difference is colossal, the hippie removed his shoes and he too squatted on the road.

May be you are right. I am not sure but this place is wonderful and staying here would be a great thing. May I ask you why do you “live” here? And you don’t miss your “old” hometown?

No, I do not. It took me some time to get habitual to all this. But now, these things have become my life. A silent walk across the village, twice a day keeps me happy. I have all the time I want in my life. For a Wall Street banker, time is an overpriced commodity, available through the illegal means only.

You work at the street? The Wall Street?

I quit my job, I used to, not anymore, I do not work anywhere now. I work in the fields sometimes, trying to learn natural agriculture from these people. Sometimes I teach English to kids here and learn the local language from them.

What about you? Why did you come here? If I subtract these sunburns from your age, you are not more than 23-24. What brings you here?

I do not know. I always wanted to be here. I think I belong to these mountains. I have seen people, they change after they visit these places. I wanted to feel the same.

Ever wondered why? Why do they change when they come here? Why they want to come to these places at the first place, when what we have here is rubble, dirt, scorching sun and practically no facility.

I do not know that is what startles me.

I am not sure if I have figured out a Universal answer for it but I know there is something we all want to be in our life, free. These mountains set us free. When you ride, you ride free. When you walk, you leave all worries behind. These mountains give you recognition, they complement your existence. They do not expect anything in return, human beings are escapists, running away from something most of the times. These mountains hide us; they accommodate escapist of any form, color, and breed. And the best part is that they do not ask any questions. All questions and answers, they leave them for you because when you answer your own questions, you get the best answer. These mountains accept you the way you are made, said the hippie with a dreamy look in his eyes, probably he was smoked-up, I was running away from time, I wanted time for myself and believe me it was not before I had spent a night here in these hills that I realized there are actually 24 hours in a day. Silence is the language these mountains speak, and the irony is of all the things, humans have lost the art of understanding silence.  That is the most important thing the Himalayas have taught me, how to learn the language of silence.

She wanted to share her story too but she just could not speak anything. A different picture of life had overwhelmed her.  A group of young girls approached them and the pahadi hippie left with them.

Class Time, he said, have a safe journey young lady.

In the background his companions were clicking pics with the young girls and asking for directions from the foreigner. 

All she could see were the Himalayas.

From Wall Street to a Himalayan Village, a guy trying to speak silence. Life could not be more interesting.

"Keep Walking - Inwards or Outwards, does not matter", was painted on one of the walls as she rode past the school building on her motorcycle.

A Real Life Incident