मिनिबस खड़ी थी सड़क के बीचों बीच, सवारियों के इन्तेजार में | ये मिनिबस का भी एक जूनियर वर्ज़न था, ट्रेडिशनल पीला रंग, गाडी के पीछे "हनी-बनी-ते-मनी दी मोटर" लिखा हुआ था काले रंग में, और बस के आगे लिखा था "दिलजले" | बस का रूट देखा तो बस वहीँ जा रही थी जहाँ मुझे जाना था, नवोदय स्कूल | किस्मत से मेरी डेस्टिनेशन आखिरी डेस्टिनेशन थी नहीं तो बस ऐसे ऐसे रह्समायी गाँवों और रास्तों से होके जाती है की आदमी गुम हो जाए पर मंजिल तक न पहुंचे | हमीरपुर डिस्ट्रिक्ट की ख़ास बात ये है की यहाँ सड़कों का मायाजाल है, सबसे ज्यादा घनत्व है यहाँ सड़कों का पूरे राज्य में [रोड डेन्सिटी] और ऊपर से मुख मंत्री का गृह नगर | किसी भी रोड पे गाडी दाल दो, अवाहदेवी या भोरंज निकल जाती है वो सड़क और हर एक गाँव के लिए सड़क है |
अपनी मोटर-साईकिल से उतरते ही मैं बस में घुस गया और मुझे खिड़की वाली सीट मिल गयी , जो की अक्सर होता नहीं है | गाँवों की बसों में खिड़की वाली सीट मिलना बड़ी मेहनत-मशक्कत का काम है | अख़बार, झोले, सब्जी के लिफाफे रखके लोग अपनी सीट मार्क कर लेते हैं, आप खाली समझ के बैठ जाओगे और बस चलने से पहले ही सीट का मालिक आ धमकेगा |
गाँव की बसों में ट्रेडिशनल सी-ऑफ करने के तरीके नहीं चलते कि जब तक बस नहीं जाती खड़े रहो और बस छूटने पे टाटा-बाय करो, ये बसें जन्म-जन्मों तक खड़ी रह सकती हैं, सवारियों के इन्तेजार में, हीर-राँझा का प्यार कम पड़ जाता है कई बार, नहीं चलेंगी तो नहीं चलेंगी, इसलिए मेरा दोस्त मुझे छोड़ के निकल लिया | बस के कंडक्टर मेनेजमेंट गुरुओं को भी पानी पिला देने वाले पैंतरे इस्तेमाल करते हैं सवारियां "ढ़ोने" के लिए इस करके बसें लाश कि तरह खड़ी रहती हैं |
खैर बस अगले ४५ मिनट तक वहीँ खड़ी रही, निर्जीव और स्थिर| फिर थोड़ी देर बाद बस का कंडक्टर आया , थोड़ी देर मतलब ४५ मिनट बाद , पर बस का कंडक्टर और अस्सिटेंट कंडक्टर अभी तक सीन में नहीं थे | गाँव की बसों में अस्सिस्टेंट कंडक्टर होते हैं , आलमोस्ट सब बसों में क्यूंकि अक्सर बसों में भीड़ बेतहाशा हो जाती है और एक कंडक्टर सब सवारियों को मैनेज नहीं कर पता है , तो सवारियों में से ही कोई स्कूल या कालेज जाने वाला नौजवान , असिस्टेंट कंडक्टर का रोल प्ले करता है | इसके निम्नलिखित फायदे हैं:
अ) लड़की पटाने में सुविधा होती है, लड़की को रोज सीट दिलवा दो तो लड़की पटने के चांसेज बढ़ जाते हैं
ब) कंडक्टर से दोस्ती हो जाती है, कंडक्टर गाँवों/छोटे शहरों में बहुत काम की चीज़ होती है
स) किराया नहीं लगता
फिर पूरे एक घंटे खड़े रहने के बाद और "अगम कुमार निगम" के दर्द भरे गीत सुनने के बाद बस में जान आई, सवारियों को ज्यादा फरक नहीं पड़ा, पर मेरी रुकी हुई धड़कन एक बार फिर चल पड़ी, बस थोड़ी देर और रुकी रहती तो मैं १२ किलोमीटर कि यात्रा पैदल ही तय कर लेता | कंडक्टर ने १०-२० लोगों को छत का रुख करने को कहा और खुद गुटका चबाता हुआ [राह चलते] लोगों से गप्पें मारता हुआ बस को चलने का आदेश दिया | रविवार के दिन बसें कम होती हैं, और सवारियां इकठी हो हो के अथाह हो आती हैं, तो बस के अन्दर पूरा कुम्भ का मेला लगा हुआ था, और मेरे बगल में बैठी हुई आंटी मजे से मूंगफली खा रही थी और छिलके बस में ही फेंक रही थी , एकदम आराम से, भीड़ भड़क्के से कोई फरक नहीं पड़ा उसको| मूंगफली मुहं में और छिलका बस के अन्दर, एकदम अचूक निशाना |
खैर बस चली, धीरे धीरे, मेरी परेशानी का लेवल बढ़ता चला गया और सवारियां उतरती चढ़ती चली गयीं, पांच उतरती थी, दस चढ़ती थी, भीड़ ख़तम होने का नाम नहीं लेती थी| पूरी बस में मुझे छोड़ के कोई भी विचलित नहीं था बस की देरी को लेकर के, उनके लिए रोज का काम था, उनके लिए इन्तेजार करना ही जीवन है और मेरे लिए तेज़ भागना, जल्दी जल्दी, सब कुछ जल्दी चाहिए, बस एकदम से| वहां जिंदगी बहुत धीमे से चलती है गाँव में| धीरे धीरे गाँव बदल रहे हैं, जमीन है पर खेती नहीं है क्यूकी अब खेती नहीं कोई करना चाहता, कुछ आई.आई.एम् और आई.आई.टी वाले कहते हैं कि खेती करेंगे पढ़ लिख के पर बाकी सबको शेहेर जाना है| मेरा एक दोस्त है आई.आई.एम् लखनऊ का , कहता है गाय पालेगा, खेती करेगा, भाई अच्छी बात है, बहुत अच्छी बात है, खेती नहीं करेगा तो शेहेर वाले तो कहीं के नहीं रहेंगे, अब पहाड़ों में हरियाली न रही तो काहे के पहाड़? पूरे डेढ़ घंटा गाँव गाँव में घूमने के बाद मैंने पांच किलोमीटर का सफ़र तय किया, अब मैं भी एक गाँव वाला हो चुका था, कोई जल्दी नहीं, कम से कम एक बस तो है , पैदल चलने से तो वही अच्छा है, यही संतुष्टि का भाव लिए उतर गया मैं |
मैं भी एक गाँव में ही रहता हूँ सुंदरनगर में , आप भी एक गाँव से ही आये हैं, आज दिल्ली, मुंबई, गुडगाँव में हैं, पर घर आपका भी गाँव में ही है, एक छोटा सा गाँव, जहाँ आज भी वही मिनी बस चलती है, कम सीटें और ज्यादा सवारी के साथ| वहां बसों का इन्तेजार करना एक जरुरत है , आएगी तो आएगी नहीं तो पैदल चलो| मंडी, काँगड़ा, हमीरपुर, सोलन, कुल्लू, शिमला, सब जगह यही मिनिबस चलती है, वही पीला रंग, वही शेर-ओ-शायरी , वही दिलजले ड्राइवर, और वही घिसे-पिटे से रूट |
पर कभी घर आओ "एक हफ्ते" कि छुट्टी पे तो बैठना इस मिनिबस में, मजा आएगा |
अपनी मोटर-साईकिल से उतरते ही मैं बस में घुस गया और मुझे खिड़की वाली सीट मिल गयी , जो की अक्सर होता नहीं है | गाँवों की बसों में खिड़की वाली सीट मिलना बड़ी मेहनत-मशक्कत का काम है | अख़बार, झोले, सब्जी के लिफाफे रखके लोग अपनी सीट मार्क कर लेते हैं, आप खाली समझ के बैठ जाओगे और बस चलने से पहले ही सीट का मालिक आ धमकेगा |
गाँव की बसों में ट्रेडिशनल सी-ऑफ करने के तरीके नहीं चलते कि जब तक बस नहीं जाती खड़े रहो और बस छूटने पे टाटा-बाय करो, ये बसें जन्म-जन्मों तक खड़ी रह सकती हैं, सवारियों के इन्तेजार में, हीर-राँझा का प्यार कम पड़ जाता है कई बार, नहीं चलेंगी तो नहीं चलेंगी, इसलिए मेरा दोस्त मुझे छोड़ के निकल लिया | बस के कंडक्टर मेनेजमेंट गुरुओं को भी पानी पिला देने वाले पैंतरे इस्तेमाल करते हैं सवारियां "ढ़ोने" के लिए इस करके बसें लाश कि तरह खड़ी रहती हैं |
खैर बस अगले ४५ मिनट तक वहीँ खड़ी रही, निर्जीव और स्थिर| फिर थोड़ी देर बाद बस का कंडक्टर आया , थोड़ी देर मतलब ४५ मिनट बाद , पर बस का कंडक्टर और अस्सिटेंट कंडक्टर अभी तक सीन में नहीं थे | गाँव की बसों में अस्सिस्टेंट कंडक्टर होते हैं , आलमोस्ट सब बसों में क्यूंकि अक्सर बसों में भीड़ बेतहाशा हो जाती है और एक कंडक्टर सब सवारियों को मैनेज नहीं कर पता है , तो सवारियों में से ही कोई स्कूल या कालेज जाने वाला नौजवान , असिस्टेंट कंडक्टर का रोल प्ले करता है | इसके निम्नलिखित फायदे हैं:
अ) लड़की पटाने में सुविधा होती है, लड़की को रोज सीट दिलवा दो तो लड़की पटने के चांसेज बढ़ जाते हैं
ब) कंडक्टर से दोस्ती हो जाती है, कंडक्टर गाँवों/छोटे शहरों में बहुत काम की चीज़ होती है
स) किराया नहीं लगता
फिर पूरे एक घंटे खड़े रहने के बाद और "अगम कुमार निगम" के दर्द भरे गीत सुनने के बाद बस में जान आई, सवारियों को ज्यादा फरक नहीं पड़ा, पर मेरी रुकी हुई धड़कन एक बार फिर चल पड़ी, बस थोड़ी देर और रुकी रहती तो मैं १२ किलोमीटर कि यात्रा पैदल ही तय कर लेता | कंडक्टर ने १०-२० लोगों को छत का रुख करने को कहा और खुद गुटका चबाता हुआ [राह चलते] लोगों से गप्पें मारता हुआ बस को चलने का आदेश दिया | रविवार के दिन बसें कम होती हैं, और सवारियां इकठी हो हो के अथाह हो आती हैं, तो बस के अन्दर पूरा कुम्भ का मेला लगा हुआ था, और मेरे बगल में बैठी हुई आंटी मजे से मूंगफली खा रही थी और छिलके बस में ही फेंक रही थी , एकदम आराम से, भीड़ भड़क्के से कोई फरक नहीं पड़ा उसको| मूंगफली मुहं में और छिलका बस के अन्दर, एकदम अचूक निशाना |
खैर बस चली, धीरे धीरे, मेरी परेशानी का लेवल बढ़ता चला गया और सवारियां उतरती चढ़ती चली गयीं, पांच उतरती थी, दस चढ़ती थी, भीड़ ख़तम होने का नाम नहीं लेती थी| पूरी बस में मुझे छोड़ के कोई भी विचलित नहीं था बस की देरी को लेकर के, उनके लिए रोज का काम था, उनके लिए इन्तेजार करना ही जीवन है और मेरे लिए तेज़ भागना, जल्दी जल्दी, सब कुछ जल्दी चाहिए, बस एकदम से| वहां जिंदगी बहुत धीमे से चलती है गाँव में| धीरे धीरे गाँव बदल रहे हैं, जमीन है पर खेती नहीं है क्यूकी अब खेती नहीं कोई करना चाहता, कुछ आई.आई.एम् और आई.आई.टी वाले कहते हैं कि खेती करेंगे पढ़ लिख के पर बाकी सबको शेहेर जाना है| मेरा एक दोस्त है आई.आई.एम् लखनऊ का , कहता है गाय पालेगा, खेती करेगा, भाई अच्छी बात है, बहुत अच्छी बात है, खेती नहीं करेगा तो शेहेर वाले तो कहीं के नहीं रहेंगे, अब पहाड़ों में हरियाली न रही तो काहे के पहाड़? पूरे डेढ़ घंटा गाँव गाँव में घूमने के बाद मैंने पांच किलोमीटर का सफ़र तय किया, अब मैं भी एक गाँव वाला हो चुका था, कोई जल्दी नहीं, कम से कम एक बस तो है , पैदल चलने से तो वही अच्छा है, यही संतुष्टि का भाव लिए उतर गया मैं |
मैं भी एक गाँव में ही रहता हूँ सुंदरनगर में , आप भी एक गाँव से ही आये हैं, आज दिल्ली, मुंबई, गुडगाँव में हैं, पर घर आपका भी गाँव में ही है, एक छोटा सा गाँव, जहाँ आज भी वही मिनी बस चलती है, कम सीटें और ज्यादा सवारी के साथ| वहां बसों का इन्तेजार करना एक जरुरत है , आएगी तो आएगी नहीं तो पैदल चलो| मंडी, काँगड़ा, हमीरपुर, सोलन, कुल्लू, शिमला, सब जगह यही मिनिबस चलती है, वही पीला रंग, वही शेर-ओ-शायरी , वही दिलजले ड्राइवर, और वही घिसे-पिटे से रूट |
पर कभी घर आओ "एक हफ्ते" कि छुट्टी पे तो बैठना इस मिनिबस में, मजा आएगा |